मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

आज का महभारत: एक और चरित्रहनन का प्रयास.

शकुनी- महाराज प्रणाम और सुप्रभात।

ध्रतराष्ट्र+ सुप्रभात प्रिय शकुनी।

शकुनी- (स्वर में उत्साह व् उत्तेजना के साथ) महाराज कल फिर से द्रौपदी के चीर हरण जैसी घटना होने वाली थी।

ध्रतराष्ट्र+ शकुनी इस बात को इतने उत्साह के साथ क्यों बता रहे हो? इस दूसरी पारी में हमने अपने पुराने पापों को धोने की कसम खायी है। अतः ऐसी खबरों पर उत्साह नहीं क्षोभ वक्त किया करो।

शकुनी(मन ही मन)- महाराज आप चाहे पोजिटिव हो जाएँ मैं तो नहीं बदलूँगा।
शकुनी(प्रत्यक्षतः ) - जीजा श्री आप बदल गए तो मैं तो आपका दास हूँ मैं तो खुद ही बदल जाऊंगा। अब कल की घटना सुनिए। इस ब्लॉगजगत में कुछ मेरे अनुसरण करता भी हैं। सभी अच्छी -२ बातें करते हैं। पर फिर भी कभी कभार अन्दर की गन्दगी बहार आ ही जाती है। ऐसे ही एक अच्छे लडके ने कल अपनी ही बहिन के चरित्र हनन का प्रयास किया। मैंने भी उसकी वो पोस्ट पढ़ी जिसमे वो अपनी बहिन से मुहब्बत में कंजूसी न करने की अपील कर रहा था पर उसके पिताजी ने उसे शुरू में ही टोक दिया की बेटा तुम्हारी बात में भाई बहनों वाली शालीनता नहीं दिखाती तो अपनी असलियत सामने आने पर वो भड़क गया।

ध्रतराष्ट्र+ शकुनी देर ना करो , मुझे उस स्थल पर ले चलो। मैं अपने पुत्र सामान उस युवक को गले लगाकर उसे सुधरने की सलाह दूंगा।

शकुनी- आप उसे वैसे ही गले लगायेंगे जैसे महाभारत के बाद भीम को गले लगाने की आपकी इच्छा थी।

ध्रतराष्ट्र+ नहीं शकुनी हम बदल गए हैं। अब तुम हमें उस घटनास्थल पर ले चलो। हम खुद उसे समझायेंगे।

शकुनी- नहीं महाराज अब वहां जाने की जरुरत नहीं। अब उसने घटनास्थल से सारे साबुत मिटा दिए हैं। उसे अपनी गलती का शायद एहसास हो गया होगा। या शायद उसे उसके भाई बंधुओं ने कहा होगा की ऐसे अपनी पोल न खोल । भेड़ की खाल से बहार आकर अपना मुह न दिखा। अतः उसने अपनी पोस्ट हटा ली है।

ध्रतराष्ट्र+ तो इसका मतलब वो सुधर गया।

शकुनी(मन में)- आज तक हम नहीं सुधारे तो वो क्या सुधरेगा।
(प्रत्यक्षतः) जीजा श्री सुधरेगा क्यों नहीं। और अब आप जो आ गए है उनको सही राह दिखने (मन ही मन ... अँधा कहीं का ....) सभी सुधर जायेंगे। अच्छा जीजा श्री अब चलता हूँ। और भी ब्लॉग देखने हैं। प्रणाम।

शनिवार, 17 अप्रैल 2010

मैं ध्रतराष्ट्र हूँ

मुझे दुबारा इस धरती पर आना पड़ा। वजह साफ़ है । आज भारत में कौरव चारों तरफ फ़ैल चुके हैं और अपनी मनमानियां कर रहे हैं। मैं इनका पिता हूँ अतः इनकी मानसिकता को अच्छी तरह से समझता हूँ और इनके मंसूबों को सबके सामने बेनकाब कर सकता हूँ।

पिछली बार मुझसे कुछ गलतियाँ हो गयीं थी। तब मैं आँखों से अँधा होने के साथ साथ मन से भी अँधा हो गया था। तब मैं सही और गलत में भेद नहीं कर पाया था। सत्य और असत्य को पहचान नहीं पाया था। पुत्र प्रेम में पड़कर मैंने सत्य के मार्ग पर चल रहे पांडवों के साथ हो रहे अन्याय का मूक रहकर समर्थन किया।

पर इस बार मैं ऐसा नहीं करूँगा। जहाँ भी असत्य होगा, बेईमानी होगी, बुराई होगी, देशद्रोह होगा मैं उसका विरोध मुखरित स्वर में करूँगा। इस कारण मैंने इस बार हस्तिनापुर को त्याग कर इन्द्रप्रस्थ में रहने का निर्णय किया है।

मेरे इस कार्य में संजय अपनी दिव्या दृष्टि के साथ मेरी सहायता करने के लिए तैयार हो गए हैं।

अब बस संजय का इंतजार है, उनके आने पर ही मैं अपना कार्यकर्म शुरू कर पाउँगा। अभी तो सिर्फ इंतजार...इंतजार...इन्तजार...

(एक बात और कहना चाहता हूँ की मैं अपने नाम को हिंदी में सही ढंग से नहीं लिख पा रहा हूँ। क्या कोई इस अंधे की मदद करेंगा.)